Saturday, July 5, 2008

छाई घटा जो शाम को यादें जगा गई,

सोए समन्दरों में हलचल मचा गई।

तूफां हज़ार बार उठे और उठे खूब,

दास्ताँ - ऐ - इश्क इतनी हवाओं को भा गई।

ख़ुद को जला को हमने दी शम्मा को रौशनी,

यूँ जिंदगी रातों से अदावत निभा गई।

कितना भी दागदार है वह फ़िर भी चाँद है,

रंगत कुछ ऐसी प्यार की उसमें समा गई।

पलकों की सभी कोशिशें नाकाम ही रहीं,

जाने क्यूँ आज आंसुओं में बाढ़ आ गई।

मझधार की रातें या किनारों की हो सुबहें,

हर लहर जिंदगी को सलीके सिखा गई।

आख़िर को विनयशील ही पागल हुआ साबित,

दिल की जहाँ दिमाग से दो बात हो गई।।

1 comment:

ताऊ रामपुरिया said...

हर लहर जिंदगी को सलीके सिखा गई।
वाह साहब ! बहुत बढिया लिखा आपने !
और भी लिखते रहिये !
शुभकामनाएँ