बज्म -ऐ -रंगीं से बेरुखी कर ली
ज़ख्म -ऐ -दौराँ से आशिकी कर ली।
तुमने साए बिछाए राहों में
हमने ही धूप की गली धर ली।।
अब भी मुश्किल का दौर ज़ारी है
मुस्कराहट पे दर्द भारी है।
तुम रहो चांदनी की खिदमत में
अपनी चांदों से पर्दादारी है।
तुम तो गेसू सँवारते ही रहे
हमने ही उलझनें बड़ी कर लीं।।
अब चिरागों की गुफ्तगू समझो
दो घड़ी भर है रात यूँ समझो।
तुम सितारों के राजदार रहो
अब परिंदों का आसमां समझो।
तुमने शबनम समेटे बाँहों में
हमने ही आँख में नमी भर ली।।
Sunday, June 29, 2008
Friday, June 27, 2008
बेवज़ह धूप में हम चल पड़े घर से क्यूँकर।
हर दफा दर को शिकायत रहे सर से क्यूँकर।।
आसुओं से कोई पत्थर नही पिघला करता।
दिल को समझाने में ये लग गए अरसे क्यूँकर।।
दर्द तो साथ निभाते ही रहे चोटों का।
अपनी अश्कों से शिकायत है ये बरसे क्यूँकर।।
राहतें ओस की सूरत में मिला करती हैं।
अपनी होठों से शिकायत है ये तरसे क्यूँकर।।
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