Sunday, June 29, 2008

बज्म -ऐ -रंगीं से बेरुखी कर ली
ज़ख्म -ऐ -दौराँ से आशिकी कर ली।
तुमने साए बिछाए राहों में
हमने ही धूप की गली धर ली।।

अब भी मुश्किल का दौर ज़ारी है
मुस्कराहट पे दर्द भारी है।
तुम रहो चांदनी की खिदमत में
अपनी चांदों से पर्दादारी है।
तुम तो गेसू सँवारते ही रहे
हमने ही उलझनें बड़ी कर लीं।।

अब चिरागों की गुफ्तगू समझो
दो घड़ी भर है रात यूँ समझो।
तुम सितारों के राजदार रहो
अब परिंदों का आसमां समझो।
तुमने शबनम समेटे बाँहों में
हमने ही आँख में नमी भर ली।।

No comments: